शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

देवता

 देवता

पिछले लेख मे दिए गए परिचय के बाद देवता पर चर्चा करते हैं। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है कि देवता की प्राचीनतम अवधारणा और उल्लेख ऋग्वेद में ही प्राप्त होता है इसलिए ऋग्वेद के कुछ अन्य पक्षों पर भी प्रकाश डालना विषय की समझ के लिए आवश्यक है। ऋगवेद में दस मण्डलों में 1028 सूक्त एवं लगभग 10472 ऋचायें संगृहीत हैं। स्पष्टत: यह पूरी संहिता एक बैठक में या किसी एक कालखंड में  संग्रहीत नहीं हुई वरन विभिन्न मंडलों के भाषा संयोजन और भेद  से यह दावा किया जाता है कि इस कार्य में कई शताब्दियाँ लगी थी। मंडलों का पूर्वापर क्रम (Chronological order) भी आगे पीछे है। सुदीर्घ काल तक संग्रह प्रक्रिया चलते रहने के कारण एक ही विषय में लगातार परिवर्धन और परिवर्तन का क्रम भी दिखाई देता है। एक समस्या खिल-सूक्तों और क्षेपकों की है जिनको बाद में जोड़ दिया गया और उनमे कुछ ऐसे तत्व उल्लिखित हैं जिन्हे ऋग्वेद के मुख्य संग्रह (Main Content)के साथ स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

भाषा शास्त्रीय अध्ययनों एवं भाषा विकास की दृष्टि से ऋग्वेद के दस मंडलों में से द्वितीय से नौवें तक पूर्ववर्ती तथा प्रथम एवं दशम परवर्ती निर्धारित किए गए हैं। अत: आगे इन दो परवर्ती मंडलों के संदर्भों के साथ किसी तथ्य के समर्थन एवं खंडन के समय सावधानी अपेक्षित है। दिए जा रहे तथ्यों पर आस्था एवं भावना के अंतर्गत प्रतिक्रिया नहीं दी जाए क्योंकि ऋग्वेद काल के धर्म में समय के साथ अनेकानेक परिवर्तन हुए हैं और अनेक मान्यताएं या तो समाप्त हो चुकी हैं या उनका स्वरूप पूर्णतया परिवर्तित हो चुका है। देवता पद का और वैदिक देवमण्डल का विमर्श उपर्युक्त रूपरेखा (Outline ) में ही समझा जा सकता है।

 

देवता वैदिक व्यवस्था के केंद्रविंदु थे। देवता या देव शब्द दिव् धातु से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है चमकना। दान, दाय इत्यादि शब्द इसी धातु से उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार से देवता का अर्थ हुआ 1-जो चमकता है एवं 2-जो देता हो। ऋग्वेदिक ऋषियों ने देवता का प्रत्यय या स्वरूप इस प्रकार निर्धारित किया कि जो भी प्रकाशमय पिंड थे या जिनसे कुछ भी प्राकृतिक रूप से प्राप्त होता है वह देवता की श्रेणी में या गया। इसी प्रकाशमय प्रत्यय के कारण ही सूर्य एवं चंद्रमा को ऋग्वेद में देवता माना गया है। कृपया यहाँ इन दोनों को ग्रह न समझा जाए क्योंकि ग्रहों की अवधारणा स्पष्ट रूप से यजुर्वेद में ही प्राप्त होती है और ऋग्वेद के परवर्ती मंडलों में इनके छद्म संकेत मात्र ही प्राप्त होते हैं। अर्थात ‘देव’ वह है जो मनुष्य अथवा समस्त विश्व को देता है।

वैदिक साहित्य में प्राप्त देव विषयक विषय-वस्तु का प्रामाणिक विवेचन निरुक्तकार यास्क ने किया है-

देवो दानाद्वा द्योतनाद्वा दीपनाद्वा द्युस्थानो भवतीति वा’ (7/15)

वस्तुतः देवता अपने भक्तों को प्रकाश तथा दान देने के साथ समस्त कामनाओं के भी पूरक होते हैं। ऋग्वेद में ग्यारह-ग्यारह देवों के तीन समुदायों का उल्लेख मिलता है- द्युस्थानीय(द्यु अर्थात स्वर्ग), पृथ्वीस्थानीय एवं अंतरिक्ष स्थानीय। द्युस्थानीय में आदित्ययगण, सूर्य, विवस्वान, सविता, पूषा, आर्यमा, मित्र,  वरुण,आश्विनगण इत्यादि। पृथ्वीस्थानीय में अग्नि,यम,सोम इत्यादि तथा  अंतरिक्ष स्थानीय में इन्द्र,मरुतगण,वायु,रुद्र इत्यादि।      

निरुक्त में  भी देवों के वर्गीकरण की उपर्युक्त व्यवस्था की पुष्टि की गई है। प्रत्येक समूह में ग्यारह देवता हैं और कुल तैंतीस। इन्हे ही तैंतीस कोटि देवता कहा जाता है जिसका लोक-परंपरा में विकृत रूप 33 करोड़ प्रचलित हो गया।

ऋग्वेद में देवता संबंधित विवरण अत्यंत वृहद है और इसे संक्षेप में प्रस्तुत कर पाना अत्यंत कठिन है। लेकिन आशा है कि उपर्युक्त विवरण से इस विषय का एक स्थूल स्वरूप स्पष्ट हो जाएगा।

बुधवार, 16 जून 2021

वेद एवं वैदिक साहित्य

पिछले दिनों ज्योतिष संबंधी सोशल मीडिया के एक प्लेटफॉर्म पर ग्रहों को देवता लिखने की प्रवृत्ति पर लिखी  एक पोस्ट पर बहुत विवाद हुआ था और उसी क्रम में भारतीय साहित्य में देवता,ग्रह और ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति से सम्बंधित एक लेख का विचार उत्पन्न हुआ जिससे कि विषय में रूचि रखने वाले लोग इसके सन्दर्भ से परिचित हो सकें। चूँकि यह विषय इतना विस्तृत है कि इसे संक्षेप में समेटा नहीं जा सकता और संस्कृत साहित्य के परिचय दिए बिना यह विषय स्पष्ट नहीं हो सकता है। फिर भी विषय को सुगम्य रीति से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है और कतिपय स्थानों पर  विस्तार भय से सन्दर्भों का संकेत मात्र कर दिया गया है।   

यह सुज्ञात है कि  भारतीय साहित्य का आदि ग्रन्थ ऋग्वेद है। देवता सम्बन्धी आख्यान सबसे पहले वहीं  से प्राप्त होते हैं इसलिए सबसे पहले वेद पर ही चर्चा करते हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक श्रवण करके वेदों को सँजोने के कारण इन्हे श्रुति भी कहते हैं। प्रारम्भिक वेद तीन ही थे- ऋग्वेद,यजुर्वेद एवं सामवेद।  इनको वेदत्रयी  कहते हैं।अथर्ववेद चौथा वेद है और इसे उत्तर वैदिक काल का माना जाता है। 

भारतीय धर्म का आधार वेद ही हैं और उनको ही धर्म विषयक जिज्ञासा का मूल प्रमाण माना जाता है -

      धर्मं जिज्ञास्यमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।’’

                                  (मनुस्मृति)

वेद शब्द ‘विद्’ धातु से बना है। विद् धातु चार अर्थों में प्रयुक्त होती है-ज्ञान सत्ता लाभ और विचारणा । यहाँ यह ज्ञान अर्थ में प्रयुक्त है। भारतीय परम्परा उन ऋषियों को मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहती है जिन्होंने वेद मन्त्रों का मनन किया है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में ऐसा भाव मिलता भी है ‘‘ऋषियों ने अपने अन्तःकरण में जो वाक् (वेदवाणी) प्राप्त किया उसे उन्होंने समस्त मानववर्ग को पढ़ाया ।’’ यास्क ने भी निरुक्त में लिखा है-‘‘मन्त्रामननात् छन्दांसिछादनात्’’ तथा ‘‘ऋषिर्दर्शनात्’’ अर्थात् ऋषियों ने मन्त्रों को देखा किन्तु आज वेद शब्द का लोकप्रिय अर्थ ‘ज्ञान’ है ।

वेद और वैदिक साहित्य दोनो शब्दों के प्रयोग में प्राय: बहुत भ्रम की स्थिति रहती है। वेद को संहिता भी कहते हैं क्योंकि इसमे ऋचाओं का संग्रह है। वास्तव में ऋचायें ही वेद हैं। 

समस्त वैदिक साहित्य को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है-

(1) संहिता-जो कि मन्त्र प्रार्थना स्तवन आशीर्वाद यज्ञ विषयक मन्त्रों के संग्रहात्मक सूक्त। दूसरे शब्दों में, मन्त्रों के समुदाय का नाम ही संहिता है।

(2) ब्राह्मण- यज्ञ संबंधी विधान रीतियां एवं यज्ञोत्सव विषयक समस्त वैदिक ज्ञान के संग्रहात्मक मंत्र ब्राह्मण हैं। प्रकारांतर से ब्राह्मण-ग्रन्थों में संहिताओं के मन्त्रों की विस्तृत व्याख्या की गई है किन्तु मुख्यत: ब्राह्मण-ग्रन्थों का लक्ष्य यज्ञ का विस्तारपूर्वक वर्णन करना ही है।

(3) आरण्यक- आरण्यक तथा उपनिषद दोनों ही ब्राह्मण-ग्रन्थों के निकटवर्ती हैं तथा इन्हें भी हम संहिताओं की व्यवस्था के रूप में स्वीकार कर सकते हैं किन्तु इस साहित्य का ब्राह्मण साहित्य के साथ मौलिक अन्तर भी है। आरण्यक साहित्य में यज्ञों के आध्यात्मिक रूप का वर्णन है तो उपनिषद् में प्राचीनतम दार्शनिक विवेचन। आरण्यक साहित्य जन-समाज से दूर वनों में पढ़े जाने के कारण ही आरण्यक कहलाते हैं। ब्राह्मण साहित्य  यज्ञकर्ता गृहस्थों के लिए है तथा आरण्यक वानप्रस्थियों के लिए।

(4) उपनिषद् -उपनिषद् वैदिक साहित्य का अन्तिम भाग है। अन्तिम भाग होने के कारण इसे वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषद् ग्रन्थों में आत्मज्ञान, मोक्षज्ञान और ब्रह्मज्ञान की प्रधानता होने के कारण इसे आत्मविद्या, मोक्षविद्या और ब्रह्मविद्या भी कहा जाता है। ऋषियों के चिन्तन और मनन का साकार रूप उपनिषद है। इनमें दार्शनिक चिन्तन का गहन विवेचन हुआ है। योगेश्वर श्रीकृष्ण द्वारा उपदेशित गीता उपनिषद दर्शन का ही विस्तार है.  

चारों वेदों में ऋत्विजों के आधार पर मन्त्रों का संकलन है। यज्ञ सम्पादन के लिए ऋत्विज की आवश्यकता होती है। ऋत्विज चार होते हैं-(1) होता, (2) अध्वर्यु, (3) उद्गाता, (4) ब्रह्मा। होता नामक ऋत्विज देवता-विशेष की प्रशंसा में सविधि मंत्रोच्चारण करते हुए देवता का आह्वान करता  है।

 होता-कर्म के लिए अभीष्ट मन्त्रों का संकलन ऋग्वेद में है जिसके दस मण्डलों में 1028 सूक्त एवं लगभग 10472 ऋचायें संग्रहित हैं। पाठ-भेद के आधार पर ऋग्वेद की अनेक शाखाएं निर्धारित हैं परंतु मुख्यत: शाखाएं मानी जाती हैं। ऋग्वेद संहिता की शाकल शाखा बहुलता में प्रचलित है । अन्य शाखाओं में वाष्कल, आश्वलायन, सांख्यायन और माण्डूकायन हैं। वेद के शाखाओं की  संख्यानुसार ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद की संख्या भी होगी किन्तु ऋग्वेद के केवल दो ब्राह्मण, दो आरण्यक तथा दो उपनिषद् ही उपलब्ध हैं -

1. ऐतरेय तथा कौषीतकी ब्राह्मण,

2. ऐतरेय तथा कौषीतकी आरण्यक,

3. ऐतरेय तथा कौषीतकी उपनिषद्।

इनके अतिरिक्त ऋग्वेद से सम्बद्ध एक आश्वलायन श्रौत सूत्र भी मिलता है।        

यजुर्वेद संहिता गद्य में संकलित है जिनका वाचन अध्वर्यु नामक ऋत्विज् यज्ञ के समय करता है। अध्वर्यु यज्ञों का विधिवत् सम्पादन करता है। इस वेद के दो भाग हैं- शुक्ल यजुर्वेद तथा कृष्ण यजुर्वेद । शुक्ल यजुर्वेद की दो शाखाएं हैं-1. माध्यन्दिन तथा 2. काण्व। माध्यन्दिन शाखा का उत्तरी भारत में तथा काण्व शाखा दक्षिण में विशेषत: प्रचलित है। शतपथ ब्राह्मण तथा  बृहदारण्यक, ईशोपनिषद् तथा बृहदारण्यकोपनिषद् शुक्ल-यजुर्वेद से संबंधित हैं।

कष्ण-यजुर्वेद की चार शाखाएं क्रमशः 1. तैत्तिरीय, 2. मैत्रायणी, 3. काठक तथा 4. कपिष्ठल हैं। कृष्ण यजुर्वेद के ग्रंथ हैं- तैत्तिरीय ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक, तैत्तिरीयोपनिषद्, मैत्रायणी उपनिषद् तथा कठोपनिषद्।

इसके अतिरिक्त यजुर्वेद के आठ सूत्रग्रन्थ हैं -1. आपस्तम्ब कल्पसूत्र, 2. हिरण्यकेशी कल्पसूत्र 3. बौद्धायन श्रौतसूत्र 4. भारद्वाज श्रौतसूत्र, 5. मानव श्रौतसूत्र, 6. मानव गृह्यसूत्र, 7. वाराह गृह्यसूत्र, 8. काठक गृह्यसूत्र।

उदगाता नामक ऋत्विज् के लिए सामवेद का संकलन हुआ है। उद्गाता यज्ञ में मन्त्रों का सस्वर गान करता है। सामवेद में गेय ऋचाओं का ही संकलन है।  इस वेद की 1,875 ऋचाओं में से अधिकांश ऋग्वेद से उद्धृत  तथा बहुत कम ही मौलिक हैं।

सामवेद पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक भागों में विभक्त है।  पूर्वार्चिक को अग्नि, इन्द्र, सोम तथा अरण्य सम्बन्धी विषय-वस्तु के आधार पर चार पर्वों में पुन: विभाजित किया गया है जिन्हे क्रमशः आग्नेय पर्व, ऐन्द्र पर्व, पवमान पर्व तथा आरण्यक पर्व कहा जाता है। उत्तरार्चिक में दशरात्र, संवत्सर, सत्र, प्रायश्चित आदि यज्ञानुष्ठानों का विधान है। सामवेद की तीन शाखाएँ उपलब्ध हैं- 1. कौथुम, 2. राणायनीय तथा 3. जैमिनीय। इन तीनों शाखाओं का प्रभाव गुजरात महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में अधिक  है। सामवेद के चार ब्राह्मण ग्रन्थ हैं- तांड्य ब्राह्मण, षड्विंश, सामविधान एवं जैमिनीय ब्राह्मण। दो आरण्यक तथा तीन उपनिषद् क्रमश: छान्दोग्य आरण्यक, जैमिनीय आरण्यक, छान्दोग्योपनिषद्, केनोपनिषद् तथा जैमिनीय उपनिषद्। सामवेद की तीन शाखाओं से सम्बंधित सात सूत्र-ग्रन्थ भी हैं-

 1. कौथुम शाखा- (i) मशक कल्पसूत्र, (ii) लाटय्या श्रौतसूत्र, (iii) गोभिल गृह्यसूत्र।

2. राणायनीय शाखा - (iv) द्राह्यायण श्रौतसूत्र, (v) खदिर गृह्यसूत्र।

3. जैमिनीय शाखा - (vi) जैमिनीय श्रौतसूत्र, (vii) जैमिनीय गृह्यसूत्र।

वेदत्रयी के बाद, परवर्ती साहित्य में अथर्ववेद को चतुर्थ वेद माना गया है। अथर्ववेद का संग्रह यज्ञ विधान के लिए न होकर यज्ञ में उत्पन्न होने वाले विघ्नों के निवारण के लिए हुआ है। अथर्ववेद के मंत्रों में आयु वृद्धि, प्रायश्चित्त, पारिवारिक एकता, दुष्ट प्रेतात्मा-राक्षस शमन, शाप विमोचन इत्यादि के साथ मारण-मोहन उच्चाटन की क्रियाएँ भी निहित हैं। कतिपय अवसरों पर ऋग्वेद के मन्त्रों की पुनरावृत्ति भी है। इस वेद का ऋत्विज् ब्रह्मा है जो यज्ञानुष्ठान में होने वाली त्रुटि के उपरांत मंगलकारी मन्त्रों का उच्चारण करके त्रुटि का निवारण करता है। इस वेद के 5849 मन्त्र, 20 काण्ड हैं जो 34 प्रपाठक, 111 अनुवाक, 731 सूक्तों में विभक्त हैं। अथर्ववेद की 9 शाखाओं में से केवल दो शाखाएं ही प्राप्त हैं, जिनके नाम क्रमशः पिप्पलाद तथा शौनक हैं। पिप्पलाद शाखा के अधिकांश ग्रन्थ लुप्तप्राय हैं, केवल प्रश्नोपनिषद् ही उपलब्ध है जिसे कतिपय विद्वान पिप्पलाद उपनिषद भी कहते हैं। अथर्ववेद की द्वितीय शाखा शौनक अधिक प्रसिद्ध है। इस शाखा के गोपथ ब्राह्मण, दो उपनिषद्- मुण्डक, माण्डूक्य तथा दो सूत्र ग्रन्थ वैतान श्रौतसूत्र तथा कौशिक गृह्यसूत्र भी प्राप्त हैं।

 उपर्युक्त श्रौत-सूत्र, गृह्य-सूत्र एवं धर्म-सूत्र को समवेत रूप से कल्प-सूत्र अर्थात Manuals on Rituals कहा जाता है।

(1) श्रौत सूत्र- दीर्घकालीन एवं निरंतर चलने वाले बड़े-बड़े यज्ञों के नियम इनमें निहित हैं।

(2) गृह्यसूत्र- इनका प्रमुख विषय गृहस्थ जीवन हैं जिनमे आचार,व्यवहार, जन्म, मृत्यु, विवाह आदि के विशेष नियम समाहित हैं।

(3) धर्मसूत्र- धार्मिक और आध्यात्मिक नियमों के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं।